क्षुद्रता
जीवन का लक्ष्य मात्र अपने स्वार्थ एवं निजी महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति तक सीमित रखने से उद्देश्य क्षुद्र बन जाते हैं एवं मानसिकता भी संकीर्ण बन कर रह जाती है।
इस संकीर्ण स्वार्थपरता को धीरे-धीरे व्यक्तित्व का विनाश करने का अवसर मिल जाता है।
ऐसे व्यक्ति, मात्र जीवन का लक्ष्य, विलास -वैभव मान करके बैठ जाते हैं एवं उनके आत्मा उन्नति के मार्ग अवरुद्ध हो जाते हैं। इन्ही निकृष्ट उद्देश्यों की पूर्ति के लिए ऐसे व्यक्ति अपने शरीर स्वास्थ्य,मन विचारों को तबाह करते दिखाई पड़ते हैं।
नकारात्मक विचारों के निरंतर प्रहारों से उनका मन- मस्तिष्क शमशान की तरह विकारों से भरा रहता है।
जिस जीवन को शांति, सुख, आनंद के साथ जिया जा सकता था उसी जीवन को दुखों का जखीरा बनते देर नहीं लगती।
सोच में छोटापन रखने वाले ने तो स्वयं विकसित हो पाते हैं और ना ही अपने परिवार के विकास- पोषण के लिए कोई सम्यक व्यवस्था बना पाते हैं और उनके बच्चे संस्कार पाने से वंचित रह जाते हैं तो बड़ों का आशीष भी उन्हें नहीं मिल पाता है उनके संबंध भी स्वार्थ की धुरी पर बनते हैं तो जब तक स्वार्थ की पूर्ति होती दिखती है तब तक तथाकथित मित्रों सहयोगियों का जमावड़ा उनके आसपास रहता है बाद में उनको भी उजड़ते- बिखरते देर नहीं लगती है। कहने का अभिप्राय इतना मात्र है कि बाहर का बिखराव, अंदर की निकृष्टता की ही अभिव्यक्ति है
"सदविचारों की स्वाध्याय संचित पूजी ही मनुष्य की सच्ची आध्यात्मिक संपदा है"
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